इस वक़्त अजय देवगन की पांचों उंगलियां घी में हैं। उनकी फिल्म ‘शैतान’ अभी किनेमघरों में लगी हुई है। ‘सिंघम अगेन’ 15 अगस्त को रिलीज के लिए तैयार है। ‘मैदान’ भी इसके कुछ दिनों बाद आने की संभावना है। इसका ट्रेलर जनता पसंद कर रही है। ‘औरो में कहां दम था’ भी संभवतः इसी साल रिलीज होगी। ‘रेड 2’ भी आने वाले प्रोजेक्ट्स में शामिल है। अब इस लिस्ट में एक और नाम शामिल हो गया है।
अजय देवगन भारत के पहले दलित क्रिकेटर पलवंकर बालू की बायोपिक बनाने जा रहे हैं। इसे वो तिग्मांशु धूलिया के साथ बनाएंगे। अजय देवगन इस फिल्म से बतौर अभिनेता नहीं, बल्कि बतौर प्रोड्यूसर जुड़ेंगे। तिग्मांशु कोई अच्छा प्रोड्यूसर काफी समय से ढूंढ़ रहे थे। अब अजय देवगन ने उनका हाथ थाम लिया है। तिशू ने 2017 में ही हिंट किया था कि वो बालू की बायोपिक बनाना चाहते हैं। हालांकि वो यहां बतौर प्रोड्यूसर ही रहेंगे। उन्होंने रामचंद्र गुहा की किताब A Corner of a Foreign Field: The Indian History of a British Sport के राइट्स भी ले लिए हैं। साथ ही बालू के परिवार से भी फिल्म बनाने की सहमति ले ली है। फिल्म की कास्ट और डायरेक्टर को लेकर अभी कोई अपडेट नहीं है। अब जब अजय देवगन फिल्म से जुड़ गए हैं, तब फिल्म की कास्टिंग प्रोसेस में तेजी आने की संभावना है।
19 मार्च 1876 को पलवंकर बालू का जन्म हुआ। 17 की उम्र में वो पुणे के एक इंग्लिश क्रिकेट क्लब में काम करने लगे। उनका काम ग्राउंड स्टाफ का था। इसके तहत पिच रोल करना, मैदान की सारसंभाल और नेट्स लगाना उनकी जिम्मेदारी थी। यहीं उन्होंने गेंदबाजी करनी शुरू की। फिर बॉम्बे में हिन्दू जिमखाना के लिए खेलना शुरू किया। 1911 में ऑल इंडियन क्रिकेट टीम का हिस्सा बने। ये टीम इंग्लैंड गई। यहां इस लेफ्ट आर्म स्पिनर ने 23 मैचों में कुल 114 विकेट अपने नाम किए।
चूंकि पलवंकर बालू भारत के पहले दलित क्रिकेटर थे। दलित होने की वजह से उन्होंने अपने करियर के दौरान कई तरह के भेदभाव का भी सामना किया। ऐसा कहा जाता है कि उनका लंच अलग रखा जाता था। जब बालू मैदान में विकेट लेते, तो टीम के खिलाड़ी उनके साथ जश्न नहीं मनाते थे। मैदान के बाहर उनके खाने-पीने के बर्तन अलग थे। मैदान में जाने से पहले उन्हें अपने बर्तन खुद ही साफ करने होते। बाकी खिलाड़ी उनके साथ उठते-बैठते भी नहीं थे। आगे चलकर उन्होंने राजनीति में भी एंट्री की। आंबेडकर के वो करीब रहे। पर 1932 में आंबेडर के दलित वर्ग के लिए अलग चुनावी क्षेत्र की मांग की उन्होंने मुखालफत की। 1933 में उन्होंने आंबेडकर के सामने चुनाव भी लड़ा। हालांकि इसमें वो हार गए।